अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद दुनिया भर में राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा संबंधों में बड़े बदलाव आए हैं. यूरोप और नाटो जैसे संगठन अब अमेरिका पर उतना भरोसा नहीं कर रहे, कनाडा के लोग अमेरिका में अपनी प्रॉपर्टी बेचने लगे हैं और चीन भी अमेरिका से अपनी निर्भरता कम करने की कोशिश कर रहा है. इन सबके बीच, वैश्विक निवेशकों ने एक बड़ा सबक सीखा है, “सिर्फ मुनाफे के पीछे भागने से काम नहीं चलता, देशों की राजनीतिक स्थिरता और नियमों पर भी भरोसा होना चाहिए.”
रूस और चीन से निवेशकों का मोहभंग
रूस कभी ‘BRIC’ (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) का हिस्सा था, लेकिन पुतिन की आक्रामक नीतियों (जॉर्जिया, क्रीमिया, यूक्रेन पर हमला) के कारण निवेशकों को भारी नुकसान उठाकर वहां से भागना पड़ा.
चीन में पिछले 30 सालों में खरबों डॉलर निवेश हुआ, लेकिन अब निवेशक पूछ रहे हैं, “क्या चीन में अब पैसा लगाना सुरक्षित है?” चीन के अप्रत्याशित नियमों और जियोपॉलिटिकल रिस्क के कारण कई कंपनियां वहां से निकल रही हैं.
अमेरिका से भी बढ़ सकता है पलायन
आज विदेशी निवेशकों के पास अमेरिका में 31 ट्रिलियन डॉलर (शेयर, बॉन्ड, प्रॉपर्टी) का निवेश है. लेकिन ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति और वैश्विक अनिश्चितता के कारण निवेशक अब अमेरिका से पैसा निकालने लगे हैं. अगर सिर्फ 10 फीसदी निवेश भी अमेरिका से बाहर आता है, तो यह 4 ट्रिलियन डॉलर (400 अरब डॉलर) के बराबर होगा!
भारत बनेगा बड़ा फायदेमंद?
इस पैसे का एक हिस्सा भारत आ सकता है. अगर सिर्फ 5 फीसदी (200 अरब डॉलर) भी भारत आता है, तो यह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा बूस्टर साबित होगा. आज भारत में विदेशी निवेश (FDI, पोर्टफोलियो, लोन) GDP का सिर्फ 2.5 फीसदी है, जबकि 5 फीसदी (200 अरब डॉलर सालाना) होना चाहिए.
भारत का शेयर बाजार (4 ट्रिलियन डॉलर) और बॉन्ड मार्केट (2.5 ट्रिलियन डॉलर) इतने बड़े निवेश को आसानी से सोख सकता है. Apple जैसी कंपनियां पहले ही चीन की जगह भारत में iPhone बनाने लगी हैं. आने वाले समय में और कंपनियां ऐसा कर सकती हैं.
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