AIIMS की पहली महिला डायरेक्टर ने चार घंटे तक क्यों रोकी इंदिरा गांधी के निधन की खबर? खुद सुनाई

AIIMS की पहली महिला डायरेक्टर ने चार घंटे तक क्यों रोकी इंदिरा गांधी के निधन की खबर? खुद सुनाई


देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत सिर्फ एक दुखद घटना नहीं थी, बल्कि उससे जुड़ी कई अनकही बातें भी थीं, जो सालों तक दबाकर रखी गईं. अब इन राजों से पर्दा उठाया है AIIMS की पहली महिला निदेशक डॉ. स्नेह भार्गव ने जिनकी हाल ही में प्रकाशित आत्मकथा “द वूमन हू रैन एम्स” इन दिनों चर्चा में है.

डॉ. स्नेह भार्गव को 1984 में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) की पहली महिला डायरेक्टर बनने का सम्मान मिला था. 1962 में बतौर जूनियर रेडियोलॉजिस्ट उन्होंने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के इलाज में भी अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन 31 अक्टूबर, 1984 का दिन उनके जीवन का सबसे मुश्किल दिन बन गया.

अपनी आत्मकथा में डॉ. भार्गव लिखती हैं कि जिस दिन उन्होंने एम्स में निदेशक के तौर पर कार्यभार संभाला, उसी दिन सुबह-सुबह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गोलियों से छलनी हालत में इमरजेंसी रूम लाया गया. उनकी केसरिया साड़ी खून से लथपथ थी और शरीर पर 33 गोलियों के निशान थे. सोनिया गांधी उन्हें लेकर आई थीं और बस इतना कह सकीं उन्हें गोली मार दी गई है.

डॉक्टरों ने की कोशिशें, लेकिन कोई उम्मीद नहीं बची

डॉक्टरों की टीम ने गोलियां निकालने की कोशिश की, जो ऑपरेशन थियेटर के फर्श पर गिरती रहीं, लेकिन कोई उम्मीद बाकी नहीं थी. इंदिरा का बी-नेगेटिव ब्लड ग्रुप मिलना मुश्किल था और अस्पताल में स्टॉक भी खत्म हो गया था.

हालांकि, इंदिरा गांधी को मेडिकल रूप से मृत घोषित कर दिया गया था, फिर भी उनकी मौत की आधिकारिक घोषणा चार घंटे तक टाल दी गई. क्यों? क्योंकि उस समय देश के राष्ट्रपति जैल सिंह विदेश में थे और राजीव गांधी चुनाव प्रचार में. राजनीतिक संकट और दंगे भड़कने के डर से डॉक्टरों को आदेश मिला कि प्रधानमंत्री की जान बचाने की कोशिश जारी रखें भले ही वो कोशिश सिर्फ दिखावे के लिए हो.

95 साल की उम्र में किया बड़ा खुलासा

डॉ. भार्गव कहती हैं हमारा काम था यह दिखाना कि हम उनकी जान बचा रहे हैं. इस दौरान दिल्ली में सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए थे. डॉ. भार्गव ने एम्स के सिख कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए पुलिस बुलवाई और अपने घर को शरणार्थी केंद्र बना दिया. 95 वर्षीय डॉ. भार्गव की यह कहानी हमें याद दिलाती है कि इतिहास के कई पन्नों पर वो बातें दर्ज नहीं होतीं जो पर्दे के पीछे घटती हैं.

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